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हे पियवा मोरा / अनिल कुमार झा
Kavita Kosh से
भोर भोर उठी गेलोॅ, बिना कुच्छु कहने हमरा
बनी गेल्हे तोहें जे संत हे पियवा मोरा।
चललोॅ छै पवन वसंती
सुनने छै हमरो विनती
उमगै छै छोड़ी महंती
द्वार द्वार नेतने घूमै कंत हे पियवा मोरा,
बनी गेल्हे तोहें जे संत हे पियवा मोरा।
चारो दीस सभ्भै जानै छै
बातो के तेॅ सभ्भै मानै छै,
मौसम के बातोॅ केॅ समझोॅ-बूझोॅ
बनी गेल्हेॅ कैन्हेॅ महंत हे पियवा मोरा
बनी गेल्हे तोहें जे संत हे पियवा मोरा।
आगिन लागतौ गे कोयली
बिना कुच्छु सोचने कूकली,
बरस बरस लागै छी भुखली
देखोॅ न करलां कत्ते तंत हे पियवा मोरा
बनी गेल्हे तोहें जे संत हे पियवा मोरा।
महुआ जे महकी गेलै
आबी आबी कही गेलै
वहाँ दलानी में छिपलोॅ छै
ननदोइया चाहै करौ भिडंत हे पियवा मोरा
बनी गेल्हे तोहें जे संत हे पियवा मोरा।