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हे प्रिया, स्‍वप्‍न दर्शन के बीच जब तुम मुझे / कालिदास

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मामाकाशप्रणिहितभुजं निर्दयाश्‍लेषहेतो-
     र्लब्‍धायास्‍ते कथमपि मया स्‍वप्‍नसंदर्शनेषु।
पश्‍यन्‍तीनां न खलु बहुशो न स्‍थलीदेवतानां
     मुक्‍तास्‍थूलास्‍तरुकिसलयेष्‍वश्रुलेशा: प‍तन्ति।।

हे प्रिये, स्‍वप्‍न दर्शन के बीच में जब तुम
मुझे किसी तरह मिल जाती हो तो तुम्‍हें
निठुरता से भुजपाश में भर लेने के लिए मैं
शून्‍य आकाश में बाँहें फैलाता हूँ। मेरी उस
करुण दशा को देखनेवाली वन-देवियों के
मोटे-मोटे आँसू मोतियों की तरह तरु-पल्‍लवों
पर बिखर जाते हैं।