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हे महाजीवन / सुकान्त भट्टाचार्य

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हे महाजीवन !
और यह कविता नहीं
अब कठिन कठोर गद्य ले आओ

पद लालित्य झंकार
मिट जाए
गद्य के गुरु हथौड़े की चोट से

नहीं चाहिए अब कविता की स्निग्धता
कविता मैं आज
तुम्हें देता हूँ छुट्टी

गद्यमय है पृथ्वी
भूख के राज में
पूनम का चाँद आज झुलसी एक रोटी ।

मूल बंगला से अनुवाद : नील कमल