भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हे मित्र, मेरे प्रिय / कालिदास
Kavita Kosh से
|
उत्पश्चामि द्रुतमपि सखे! मत्प्रियार्थं यियासो:
कालक्षेपं ककुभरसुरभौ पर्वते पर्वते ते।
शुक्लापांगै: सजलनयनै: स्वागतीकृत्य केका:
प्रत्युद्यात: कथमपि भववान्गन्तुमाशु व्यवस्येतु।।
हे मित्र, मेरे प्रिय कार्य के लिए तुम जल्दी
भी जाना चाहो, तो भी कुटज के फूलों से
महकती हुई चोटियों पर मुझे तुम्हारा अटकाव
दिखाई पड़ रहा है।
सफेद डोरे खिंचे हुए नेत्रों में जल
भरकर जब मोर अपनी केकावाणी से
तुम्हारा स्वागत करने लगेंगे, तब जैसे भी
हो, जल्दी जाने का प्रयत्न करना।