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हे मेरी तमहारिणी : चौथा अवतरण / प्रेमचन्द गांधी

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अब मेरी काव्‍य-चेतना में तमहारिणी ज्ञानेंद्रपति की चेतना पारीक की तरह रच-बस गई है। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि चेतना पारीक एक खोई हुई नायिका है और मेरी तमहारिणी सदा-सर्वदा साथ रहने-चलने वाली नायिका। कई बार तो लगता है कि इस शृंखला के अतिरिक्‍त भी जो मेरी कविताएं हैं, वे सब की सब शायद उसे ही संबोधित हैं। वह जैसे चुपचाप सुनती और मुस्‍कुराती रहती है मेरी कविताओं पर, मेरे पाठ पर। उसका होना ही जैसे मेरे कवि का होना है। मैं कहीं भी जाऊं, वह मेरे आसपास हवा की तरह बनी रहती है। इसलिए इन कविताओं में उसकी कई तरह की छवियां हैं।
                                                                          प्रेमचन्‍द गांधी

1.
पानी वाली रेल में
जो नदी मेरे घर तक आती है
उसमें तुम्हारे पसीने की महक
आँसुओं का नमक और
प्रेम की तरलता है
क्‍या यही वह नदी है
जो बहती है मेरी प्रज्ञा में
और मुझे सरसब्ज़ बनाये रखती है
इस रेगिस्तानी गाँव में

2.

देखो तो सही प्रिया कामिनी
तुम्‍हारी देह का रंग लेकर
बसन्‍त आया है सृष्टि में
अब कुछ नहीं समाता
तुम्‍हारे सिवा दृष्टि में
सारी ऋतुएँ तुम्‍हारी हैं
हे मेरी वासन्ती तमहारिणी
3.
हमारे प्यार पर
पहरा बिठाने वालों की तो
पहले ही कमी नहीं थी
अब तो इनमें वो भी शामिल हो गए हैं
जिन्हें सख़्त एतराज़ है
तुम्हारे प्यार जताने के तौर-तरीकों पर
इन सबसे लड़ते-भिड़ते ही बचाना है
हमें अपना प्यार
हे मेरी तमहारिणी...
4.

रात देर तक चाँद के हाथों में
चाँदनी मेहदी लगाती रही
आकाश ने दोनों को कोहरे का लिहाफ ओढ़ाया
सुबह के सूरज ने जब देखा
चाँद के रूप से लजा कर लाल हो गया
आज हर तरफ़ महकती हिना की ख़ुशबू
चाँद के चर्चे चारों ओर
मेरे पास एक ही पृथ्‍वी है
और है इकलौता चाँद तुम्‍हारे रूप में
हे मेरी तमहारिणी...
5.

जब भी कहनी हो तुम्‍हें दिल की इकलौती बात
तुम्‍हारा मोबाइल बज जाता है
या कि तुम्‍हें कोई और काम याद आ जाता है...
अगर वक़्त मिल भी जाए तो तुम
इतना कह चुप करा देती हो कि
हाँ, मुझे पता है कि क्‍या कहना चाहते हो...
बेमतलब ही सही
कभी-कभी कह लेने दिया करो ना कि
हाँ, मुझे तुमसे प्‍यार है
तमहारिणी...
6.

दिन तो इतना ख़ूबसूरत है कि
कुछ कह लें हम कि
आज है चमकता हुआ चाँद शरद का
हमें अपनी किरनों में नहलाता हुआ कि
ऐसी चाँद रात फिर ना जाने कब आए और
हम ढाई अक्षर कहने के लिए
एक ज़िन्दगी तरस जाएँ
हे मेरी तमहारिणी...
7.

मैं नींद में था कि ख्‍व़ाब में था
लेकिन तुम्‍हारे ही साथ था
वो पपीते का बाग था
इतना रसीला, ऐसा उजला कि जैसे
पूरा जीवन राग था
तमहारिणी...
8.

प्रेम करना वैसा ही है
जैसे पानी में उतर कर
सिंघाड़े तोड़ना...
जिसने तोड़े हैं
काँटों से बच कर सिंघाड़े
वही जानता है प्रेम ...

9.

हर मन में है इक पावन रावण
जिसको सीता अच्‍छी लगती है
राम बिचारा क्‍या करे जिसे
केवल सीता अच्‍छी लगती है
...
रावण को मारने वाले राम
पहले तो सीता को दुख पर दुख देते हैं
लेकिन ख़ुद से हार कर
आख़िर क्‍यों ख़ुदकुशी करते हैं...
इतिहास पर सवाल करो तो लोग
पोथियाँ लेकर पीछे दौड़ते हैं
बाकी बचे लोग खाटों पर बैठे
फरमान निकालते रहते हैं...
कितने रावण हैं दुनिया में
खाट, जाजम, आसन, दाढ़ियाँ जमाए हुए...हमें इन सबसे लड़ते-भिड़ते रहना है
प्रिये तमहारिणी

10.

प से प्रेम लिखता हूँ
तुम्‍हारी याद आती है

तुम्‍हारे नाम को
कैसे करूँ मैं अपने से अलग
वो तो ऐसे जुड़ा है
जैसे बारिश बादलों से

11.

ज़न्नती दरवाजे से बाहर आकर
मन्नतों की दो गाँठें लगाई
हुजरे में एक परी चेहरा दिखा
ओह
ये तो कोई और दीवानी थी ख्वाजा की
अकीदत में डूबा हर चेहरा
दीवाना लगता है
सुनो
उन दो गाँठों में
एक तुम्हारे नाम की है तमहारिणी
और एक उस दीवानी के नाम की
12.

उसकी चौखट को मैंने चूम कर
सजदे में सर को झुका लिया
अपनी दुआओं का क्या हिसाब दूँ
तुझको ही उससे माँग लिया
सजदे में तेरे लिए अजमेर में ::

13.

श्राद्ध के दिन हैं
आओ आज
जीते- जी ही कर लें हम
अपने प्रेम का तर्पण
क्‍योंकि
कुछ लोगों को बस चाहा जाता है
उनसे प्रेम नहीं किया जाता
वे इतने पवित्र होते हैं कि
उनके बारे में
कुछ ऐसा-वैसा सोचना
किसी भी कोण से सम्भव नहीं होता सच है ना तमहारिणी

14.

पूछती हो
रोता क्‍यूँ हूँ

यादें हैं ये तेरी
रेगिस्‍तान के बादल नहीं
जो बिन बरसे चले जाएँगे हे मेरी तमहारिणी

15.
आखिर कब तक यूँ ही मोहब्‍बत में
अपनी चाहतों के नशेमन में

अकेले मैं ही बैठा रहूँ...
तुमने जो सौंप दिए हैं

आरज़ुओं के बैज़,
कब तक उन पे बैठा
अपने जिस्‍म-ओ-रूह की गरमी से
नये घोंसलों की इबारतें लिखता रहूँ प्रिये तमहारिणी

    • बैज़ : अण्‍डे


16.
ये तेरा घाघरे का घेरा
जैसे पृथ्‍वी का वलय
सृष्टि के चारों ओर
तमहारिणी

17.
कितनी गहरी और अलौकिक होती है
यह हमारी देह की नदिया कि
एक चुम्बन मात्र से
गहरे डूब-डूब जाते हैं हम

देह की नदियों के संगम पर
बरसता है नेह का मेह धाराधार
एक स्‍नान हमें
कितना पवित्र कर देता है
तमहारिणी

18.
चाँद के बिना भी होती है चाँदनी
जैसे तुम्‍हारे बिना भी
चल रही है ज़िन्दगी
तुम्‍हारी मौजूदगी जितना उजाला तो
हमेशा ही रहता है सृष्टि में

19.
महज
धोने, खाने, पीने और काम करने के लिए
नहीं बने हैं ये हाथ
न ही फ़कत जेबों में रखने के लिए प्रिये
हाथ तो अच्‍छे लगते हैं हाथों में
तुम थाम लेती हो तो
हर सुबह-शाम
दीवाली हो जाती है


20.
किन घाटियों के बीच था मैं कि जहाँ
एक निर्झर की मीठी कल-कल
कानों में घोल रही थी
सातों सुर संगीत के
किस तरफ़ से आ रही थीं
वो नशीली हवाएँ
लेकर अपने साथ
कुदरत की तमाम खुशबुएँ
कौन रहा होगा दरख़्तों से घिरे
इस हरियाले जंगल में कि
झरना बजा रहा था जैसे सितार

मैंने गहरी घाटी में
दरख़्तों के पार चलकर देखा
तुम नहाकर आ रही थी
एक वनकन्‍या की तरह
आओ प्रिये
पहले बटोर लूँ
तुम्‍हारे केशों से झरते मोती
फिर नेह की एक गाँठ लगा दूँ पीछे से।