हे राम! न आते अगर आप / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
रहती पाषाणी ही सदैव, निर्दोष सती
एकाकी घोर उपेक्षाओं से त्रस्त और
कटु व्यंग्य-बाण सहती समाज के नित्य नये,
पाती न मान वह रंचक भी निज पूर्व ठौर
थी सहज सिद्ध ऋषि की वाणी कैसे मिट पाता कठिन शाप?
हे राम! न आते अगर आप।
तुम भेद भाव से परे प्रेम के मूर्त रूप,
सब को समान सद्भाव स्नेह देने वाले
तुमने समाज से त्यक्त जनों को अपनाया,
मद अहंकार कुलवानों का हरने वाले
सब भाँति बहिष्कृत अबला का कटता कैसे संकट अमाप?
हे राम! न आते अगर आप।
रहते सुग्रीव उपेक्षित ही पाषाणों में,
शबरी का मिलती पावन नवधा भक्ति कहाँ?
होते फिर धन्य सुतीक्षण ऋषि कैसे बोलो,
उन गीधराज को मिलती कैसे मुक्ति यहाँ?
रोती संस्कृति-सभ्यता मनुजता का विघटित होता प्रताप
हे राम! न आते अगर आप
है आत्मबली तुम सा न यहाँ दिखता कोई,
तुम बढ़े अकेले और लक्ष्य को प्राप्त किया
आतंक-जाल से छुड़ा धरा कर निष्कंटक,
तत्क्षण सुपात्र के हाथों में सब सौंप दिया
किसके समक्ष आतंक डालता अपना ध्वंसक कठिन-चाप?
हे राम! न आते अगर आप।
किस तरह यज्ञ हो पाते विश्वामित्र के,
शिव धनुष न होता भंग जनक जी पछताते
दण्डकारण्य के आतंकी दल बल समेत,
किस भाँति भला मिटते ऋषिकुल सब सुखपाते?
आ पाता कैसे रामराज्य मिटता कैसे भव पाप-ताप?
हे राम! न आते अगर आप।
किस भाँति भरत का भ्रातु प्रेम उन्नत होता,
कैसे सेवक से सेव्य पवनसुत कहलाते?
कैसे सरयू की लहर-लहर पावन होती,
कवि तुलसीदास कथामृत कैसे बरसाते?
किस तरह जगद्गुरु हो भारत पाता गौरव गरिमा अमाप?
हे राम! न आते अगर आप।
जग में हो पाता अवध भला क्या वन्दनीय,
उन्नत समष्टिवादी संस्कृति कैसे होती?
बाँधता कौन सागर विराट के ज्वारों को,
लंका अब तक राक्षसी भार को ही ढोती।
नर वानर पशु-पक्षी समस्त किसका करते अनवरत जाप?
हे राम! न आते अगर आप।