हे राम! न आये अगर आप / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
है विलख रही मानवता अपने आँगन में
युग धर्म सत्य संस्कार मौन वनवासी हैं
सीताओं के अपहरण नित्य हो रहे यहाँ,
धरती माता के मुख पर घिरी उदासी है
आतंक रहा बढ़ता यों ही बढता जायेगा पाप ताप।
हे राम! न आये अगर आप।
बढ़ रहे प्रदूषण के खर-दूषण दिन पर दिन
हिंसा अशान्ति हावी नैतिकता के गढ़ पर
हो रही भंग रिश्ते नातों की मर्यादा,
ललकारे आखिर कौन अनय के सिर चढ़कर
जीवन की अमृतधार सोख लेगा बढ़ता मरुस्थल प्रताप।
हे राम! न आये अगर आप।
अब रावण नहीं रक्त बीजों के वंश बढ़े,
झुग्गी झोंपड़ी महल हो या फिर राजभवन।
सर्वत्र उठायें शीश कर रहे अट्टहास,
हम देख रहे अनिमेष लुट रहा जीवन धन
बोलो फिर धरती माता का किस भाँति रुक सकेगा विलाप।
हे राम! न आये अगर आप।
अब कौन धरा पर अभिनव ज्योति जगायेगा?
पथभ्रष्ट जनों को उज्ज्वल राह दिखायेगा?
बढ़ रहे भेद को कौन मिटायेगा जग से?
अपनत्व किस तरह जन मन में अँखुआयेगा?
जीवन की धरती पर जीवन का जग न सकेगा वह प्रताप।
हे राम! न आये अगर आप।
बढ़ रही मनुज की इच्छाएँ हर-पल असंख्य,
अब टूट रहीं सीमाओं की भी सीमाएँ
संतोष शान्ति लुट चुकी है कब की,
कैसे अस्तित्व बचायें छिपे कहाँ जायें?
यह तपोभूमि पावन अपनी बिक जायेगी सब बिना नाप।
हे राम! न आये अगर आप।
मुस्कान गयी दीपक की तुलसी चैरों से,
जीवन का सहज सलोनापन खो गया कहीं।
कट छट कर नष्ट हो गये हैं सारे आँगन,
दरवाजों पर रह गया शेष कुछ स्थान नहीं
परहित की चर्चा कौन करे भूलेगा खुद का मनुज आप
हे राम! न आये अगर आप।