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हे राम ! सुनो तुम / सुभाष राय

१.

इतिहास के मलबे पर
पत्थर की तरह पड़े हो
स्मृतिभ्रंश के शिकार

सुना है कभी तुम्हारे स्पर्श से
अभिशप्त शिला हो गई थी प्राणवान
छू सको तो मुड़कर छू लो स्वयँ को
अब किसके स्पर्श का इन्तज़ार है तुम्हें ?
हे राम ! कहाँ है तुम्हारा अपना राम ?



२.

हे राम ! अब कोई
साखी नहीं तुम्हारे पक्ष में
तुम बोल नहीं सकते, सुन नहीं सकते
ख़ुश नहीं हो सकते, रो नहीं सकते
अब तुम न्याय भी नहीं कर सकते

वे जान गए हैं कि
तुम्हें घिस-घिस कर
मनचाही शक़्ल दी जा सकती है
पटका जा सकता है
तोड़ा जा सकता है
आस्था की ज़मीन पर
कहीं भी स्थापित किया जा सकता है

तुम उनके हाथों में आ गए हो
वे उछाल रहे हैं तुम्हें
असहमत दिमागों पर
ज़िन्दगी के ख़ूबसूरत आईनों पर

भगवन ! तुम कैसे ईश्वर हो
दिखते तो सिर्फ़ पत्थर हो