हे विहंगिनी / भाग 1 / कुमुद बंसल
1
मधुर स्वर,
धुन है पहचानी
हे विहंगिनी!
तुझ-सा ही आनन्द
पाएगा मेरा मन।
2
चिनार-वृक्ष,
हिमरंजित वन,
धरा-वक्ष पे
घूमते बादलों की
मीठी-सी है छुअन।
3
शरद् ॠतु में
झड़ा हरेक पात,
सूनी शाखों की
दर्द भरी है बात
सुनती दिन-रात।
4
भीनी-सी गन्ध
पीली-पीली सरसों
मंजरी-गुच्छ,
झरते बेला - पुष्प
सूँघे मन बरसो।
5
मेघ-तड़ित
रूठते-झगड़ते,
आँखमिचौली
सूर्य, मेघ, पवन,
देखी इन्हीं नयन।
6
बन अतिथि
वन औ' उपवन,
पुष्प लटकी
ओस का अवलेह
चखता यह मन।
7
सौ–सौ ठौर हैं
विचरण के लिए,
नभ छू कर
लौट आता है पिक,
तृण-नीड़ अपने।
8
नन्हा-सा पिक
रंगीले जिसके पंख
गीत महान,
देता मुझे चुनौती
मैंने भरी उड़ान।
9
कृश है काया,
मुट्ठी भर है मिट्टी,
छोटे-से पंख,
उड़ान गजब की,
गगन को हराती।
10
शाख पे बैठे
बतियाएँ परिन्दे,
गाते सुमन,
पग घुँघुरू बाँध
नाचता उपवन।