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हे सखी मेले में / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
हे सखी मेले में हो गई देर।
कूद-फाँद, दौड़-धूप
कई नज़र कई रूप
पग-पग पर दृश्य नये
लेते थे घेर।
मिलने बिछुड़ने का
सजने संवरने का
होता है यौवन का
पहला सबेर।
वर्षा और आंधी थी
समां एक बाँधी थी
मुझको बचाया एक
महुआ का पेड़।
महंगाई और लूट
भरी हुई कूट-कूट
मेला नहीं था वो
नगरी अंधेर।
कोलाहल का स्थान
मेला महिला प्रधान
कानों से टकराती
बंसी की टेर।
सोची थी ‘वो’ आयें,
सौगात कुछ लायें
पर तो यहाँ थे
कुछ किस्मत के फेर।
मैं कुछ शरमायी हूँ,
यहाँ सिर्फ लायी हूँ
एक सेर गाजर और
एक सेर बेर।