भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे साधक, हे प्रेमी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे साधक,
हे प्रेमी,
हे पागल,
कवना जोत से
आपन प्राण-दीप जरवे
एह धरती पर तूं अइलऽ?
एह अपार संसार में
दुख का झरपेटा से
तहरा प्राण-वीण के तर
झनझना रहल बा।
तबो तूं
घनघोर विपदा में,
घनघोर आफत में,
कवना माई का मुँह के हँसी देख
हँस रहल बाड़ऽ, खिलखिला रहल बाड़ऽ?
ना जानीं जे केकरा खोज में,
केकरा संधान में,
तूं सब सुख के आग में झोंक,
भटकत रहेलऽ बउआत रहेलऽ?
अइसन के बा,
जेकरा प्रेम में आकुल होके
तूं रोअत रहेलऽ रोअत रहेलऽ?
ना जानीं जे के बा तहार जीवन साथी
जे तहरा ना कवनो चिंता बा, ना सोच
तूं मरन भय से मुक्त हो के
ना जानीं जे कवन प्राण-सगर के
अनंत आनंद तरंग में
उमंग से उमगत रहेलऽ
बहत रहेलऽ?