हे सूर्य ! जाड़े के सूर्य ! / सुकान्त भट्टाचार्य
हे सूर्य ! जाड़े के सूर्य !
बर्फ़-सी ठण्डी लम्बी रात तुम्हारी प्रतीक्षा में
हम रहते है
जैसे प्रतीक्षा कराती रहती है किसान की चंचल आँखे
धान कटने के रोमाँचकारी दिनों की ।
हे सूर्य तुम्हें तो पता है
हमारे पास गरम कपड़े की कितनी कमी है !
सारी रात घास-फूस जलाकर,
एक टुकड़ा कपड़े से कान ढककर,
कितनी दिक़्क़तों से हम जाड़े को रोकते हैं !
सुबह की एक टुकड़ा धूप --
एक टुकड़े सोने से भी क़ीमती लगती है ।
घर छोड़ हम इधर-उधर जाते है --
एक टुकड़ा धूप की प्यास से ।
हे सूर्य !
तुम हमारी सीलनदार भीगी कोठरी में
गर्मी और रोशनी देना,
और गर्मी देना --
रास्ते के बगल के उस नंगे लड़के को ।
हे सूर्य !
तुम हमें गर्मी देना --
सुना है तुम एक जलते हुए अग्निपिण्ड हो,
तुमसे गर्मी पाकर
एक दिन शायद हम सब एक-एक जलते हुए अग्निपिण्ड में बदल जाएँ !
उसके बाद जब उस उत्पात में जल जाएगी हमारी जड़ता,
तब शायद गरम कपड़े से ढँक सकेंगे
रास्ते के बगल के उस नंगे लडके को ।
आज मगर हम तुम्हारे अकृपण उत्पात के प्रार्थी है ।।