हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हैं फूल और काँटे मुझको दोनों समान
तुम फूल बनो या शूल मुझे परवाह नहीं।
मैंने रवि बन कर शुरू किया जबसे चलना
चल रहा तभी से मैं अपने पथ पर अब तक;
दुनिया की ओर बढ़ाए मैंने हाथ, किन्तु
भर सका न कोई मुझे अंक में आज तलक।
जलती पगडंडी पर ये प्राण अकेले ही
अपना तन जला-जलाकर चलते जाते हैं;
नभ की जलती छाया में हँस-हँस कर दिन भर
अन्तर का मृदु संगीत सुनाते जाते हैं।
है धूप और छाया मुझको दोनों समान
तुम धूप बनो या छाँह मुझे परवाह नहीं॥1॥
मैं कई बार ठोकर खा-खाकर गिरा यहाँ
पर हर ठोकर इस जीवन का उत्थान बनी;
चढ़ते-चढ़ते फिसला कितनी ही बार किन्तु
हर फिसलन में मेरी मंजिल आसान बनी।
मेरे मन का माँझी अपनी जीवन-नौका
तूफानों में ही खेने का अभ्यासी है;
तट खींच लायगी तूफानों के बीच स्वयं
धारा जीवन की, इसका वह विश्वासी है।
इसलिये मुझे तूफान और तट हैं समान
तट या कि बनो तूफान मुझे परवाह नहीं॥2॥
जो कुछ दुनियाँ के साथ किया मैंने अब तक
उसके बदले कुछ मिले मुझे यह चाह नहीं,
मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाया है
दुनियाँ भूले या याद करे परवाह नहीं।
मैं नहीं अमरता का पद पाने को उत्सुक
केवल मानव बनने की मुझ में अभिलाषा;
विष से डरता देवत्व, अमृत को लालायित
मैं शंकर बन फैले विष पीने का प्यासा।
विष औ’ अमृत दोनों ही मुझको हैं समान
तुम अमृत या विष बनो मुझे परवाह नहीं॥3॥
उस ऊषा का शृंगार किया जिन फूलों ने
उनको निश्चय ही रे मुरझा जाना होगा;
उस संध्या का शृंगार किया जिन दीपों ने
उनको कल निश्चय ही रे बुझ जाना होगा।
जो बसा प्राण का पंछी तन-तरु कोटर में
तन-मरु गिरने पर उसको उड़ जाना होगा;
मिट्टी का तन जिस पर जग की इतनी ममता
उसको निश्चित मिट्टी में मिल जाना होगा।
इसलिये धूल-शृंगार मुझे दोनों समान
तुम धूल या कि शृंगार बनो परवाह नहीं॥4॥