भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है अंग-अंग तेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
है अंग-अंग तेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।
देखा है तुझ को जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।
अल्फ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।
नागिन समझ के ज़ुल्फ़ें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।
आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत, सौ ग़ज़ल।