है अभी महताब बाक़ी और बाक़ी है शराब / फ़िराक़ गोरखपुरी
है अभी महताब बाक़ी और बाक़ी है शराब
और बाक़ी मेरे तेरे दरम्याँ सदहा<ref>सैकड़ों</ref> हिसाब।
दीद अन्दर दीद, हैरानम हेजाब अन्दर हेजाब
वाय बावस्फ़े ईं क़दर-राजो-नयाज़ ईं इजतेनाब।
दिल में यूँ बेदार<ref>जाग्रत</ref> होते हैं ख़यालाते-ग़ज़ल
आँख मलते जिस तरह उट्ठे कोई मस्ते-शबाब।
गेसू-ए-ख़मदार में अशाआरे-तर की ठँढकें
आतशे-रुख़सार में कल्बे-तपाँ का इल्तहाब।
चूड़ियाँ बजती हैं दिल में, मरहबा<ref>धन्य हो</ref>, बज़्मे-ख़याल
खिलते जाते हैं निगाहों में जबीनों<ref>माथा</ref> के गुलाब।
काश पढ़ सकता किसी सूरत से तू आयाते-इश्क़
अहले-दिल भी तो हैं ऐ शेख़े-ज़मा अहले-किताब।
एक आलम पर नहीं रहती है कैफ़ीयाते इश्क़
गाह रेगिस्ताँ भी दरिया, गाह दरिया भी सुराब<ref>मृगतृष्णा</ref>।
कौन रख सकता है इसको साकिनो-जामिद कि ज़ीस्त
इनक़लाबो - इनक़लाबो - इनक़लाबो - इनक़लाब ।
ढूँढिये क्यों इस्तेआरे<ref>रूपक</ref> और तशबीहो<ref>उपमा</ref> - मिसाल
हुस्न तो वो है बतायें जिसको हुस्ने - लाजवाब ।
हस्त जन्नत की बहारें चन्द पंखडि़यों में बन्द
गुन्चा खिलता है तो फ़िरदौसों<ref>स्वर्ग</ref> के खुल जाते हैं बाब<ref>द्वार</ref>।
आ रहा है नाज़ से सिम्ते - चमन को ख़ुशख़िराम<ref>अच्छी चाल वाला</ref>
दोश<ref>कंधा</ref> पर वो गेसू-ए-शबगूँ<ref>रात की तरह केश वाला</ref> के मँडलाते सहाब<ref>बादल</ref>।
हुस्न ख़ुद अपना नक़ीब, आँखों को देता है पयाम
आमद-आमद आफ़्ताब आमद दलीले-आफ़्ताब।
अज़मते-तक़दीरे-आदम अहले-मज़हब से न पूँछ
जो मशीअत ने न देखे दिल ने देखे हैं वो ख़्वाब।
हुस्न वो जो एक कर दे मानी-ए-फ़त्हो-शिकस्त
रह गयी सौ बार झुक-झुक कर निगाहे कामयाब।
ग़ैब<ref>परोक्ष</ref> की नज़रे बचा कर कुछ चुरा ले वक़्त से
फिर न हाथ आयेगा कुछ हर लम्हा है पा-दर-रिकाब<ref>रिकाब में पैर जा रहा</ref>\।
हर नज़र जलवा है हर जलवा नज़र हैरान हूँ
आज किस बैतुलहरम<ref>अल्लाह का घर मस्जिद</ref> में हो गया हूँ बारयाब<ref>प्रवेश प्राप्त</ref>।
बारहा, हाँ बारहा मैने दमे-फ़िक्रे-सुखन<ref>काव्य चिन्तन के समय</ref>
छू लिया है उस सुकूँ को जो है जाने- इज़्तेराब<ref>व्याकुलता की आत्मा</ref>।
सर से पा तक हुस्न है साज़े-नुमू<ref>उभरने, उत्पत्ति लेने वाला गीत</ref> राज़े - नुमू<ref>उत्पत्ति का मर्म</ref>
आ रहा है एक कमसिन पर दबे पाँवों शबाब।
बज़्मे - फ़ितरत सर-बसर होती है इक बज़्मे - समाअ
वो सुकूते - नीमशब का नग़्मा - ए- चंगो - रबाब।
ऐ ’फ़िराक़’ उठती है हैरत की निगाहें बा अदब
अपने दिल की खिलवतों से हो रहा हूँ बारयाब।