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है उम्र-ए-रफ़्ता मिरी वक़्त के निशाने पर / शहबाज़ 'नदीम' ज़ियाई
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है उम्र-ए-रफ़्ता मिरी वक़्त के निशाने पर
पहुँच जाएगी ये ख़ाक भी ठिकाने पर
अज़ीज़ रक्खा सदा जाँ से भी ज़ियादा जिसे
ब-ज़िद है आज वही मेरी ख़ाक उड़ाने पर
कोई शिकारी यक़ीनन यहाँ से गुज़रा है
खँडर में बिखरे पड़े हैं नए पुराने पर
हैं रौशनी में नहाए हुए दर ओ दीवार
ये किस का साया पड़ा मेरे आशियाने पर
ये कैसा नूर हुआ मेरे ख़ून में आमेज़
ये किस ने हाथ रक्खा आज मेरे शाने पर
उठा कमान चला तीर देखता क्या है
हमारा दिल है तिरी आँख के निशाने पर
रही है मुझ को हमेशा तलाश-ए-रिज़्क़ मगर
नज़र रक्खी नहीं क़ारून के ख़ज़ाने पर
मैं नेक ओ बद से हूँ हर लम्हा बा-ख़बर ‘शहबाज़’
निगाह रहती है पैहम मिरी ज़माने पर