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है क़फ़स में ज़िन्दगानी क्या बताऊँ / डी .एम. मिश्र
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है क़फ़स में ज़िन्दगानी क्या बताऊं
दर्दे दिल की दास्तां किसको सुनाऊं
भागने के रास्ते हैं बंद सारे
सोच करके बस यही मैं छटपटाऊँ
टूट जायेगा किसी मासूम का दिल
वो अगर खुश है तो क्यों उसको रुलाऊं
आग से भी डर लगे, तूफ़ान से भी
फूस का है घर मेरा कैसे बचाऊं
जो अंधेरों में जले हैं साथ मेरे
उन चिराग़ों को भला कैसे बुझाऊं
बस यही हासिल रहा है ज़िंदगी का
आंसुओं का घूंट पीकर मुस्कराऊं