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है क़ाबा इक तरफ़ और इक तरफ़ काशी-शिवाला है / सूरज राय 'सूरज'

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है क़ाबा इक तरफ़ और इक तरफ़ काशी-शिवाला है।
दलालों ने बड़ी साज़िश भरा सिक्का उछाला है॥

वो मज़दूरों की बस्ती है चलो दो-चार दिन रह लें
वहाँ भगवान है मेहनत वहाँ मज़हब निवाला है॥

न सर पर हाथ रखना न पलट के देखना मुझको
बड़ी मुश्किल से पलकों ने समन्दर को सम्हाला है॥

मेरी ख़िल्वत का साथी अक्स माथे की शिकन का वो
तुम्हारे वास्ते तो सिर्फ़ इक मकड़ी का जाला है॥

बलाएँ कसमसा कर थक-थकाकर पूछती हैं ये
दुआओं का गले में माँ की क्या तावीज़ डाला है॥

किया है क़त्ल दुनिया ने ग़ज़ब हथियार से उसका
न ख़ंजर है न ही तलवार, बस फूलों की माला है॥

उठो उपदेश मत दो वक़्त है तारीख़ लिखने का
अभी सीधी कमर है रंग भी बालों का काला है॥

यहाँ तक आते-आते हांफ जाते हैं सभी "सूरज"
चले आओ मेरे क़दमों का राहों में उजाला है॥