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है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में / शबाना यूसफ़

है कोई दर्द मुसलसल रवाँ-दवाँ मुझ में
बना लिया है उदासी ने इक मकाँ मुझ में

मिला है इज़्न सुख़न की मसाफ़तों का फिर
खुले हुए हैं तख़य्युल के बादबाँ मुझ में

सहाबी शाम सर-ए-चश्म फैलते जुगनू
किसी ख़याल ने बो दी ये कहकशाँ मुझ में

मुहाजरत ये शजर-दर-शजर हवाओं की
बसाए जाती हैं ख़ाना-बदोशियाँ मुझ में

अजीब ज़िद पे ब-ज़िद है ये मुश्त-ए-ख़ाक बदन
अगर है मेरी रहे फिर ये मेरी जाँ मुझ में

मिरा वजूद बना है ये कैसी मिट्टी से
समाए जाती हैं कितनी ही हस्तियाँ मुझ में