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है ग्रहों पर कई यह चढ़ा जा रहा / रंजना वर्मा

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है ग्रहों पर कई यह चढ़ा जा रहा।
नर धरा को स्वयं आज झुलसा रहा॥

दोस्तों से भले आँख हो फेर ली
दुश्मनी हर किसी से निभाता रहा॥

चाहता चाँद पर आशियाना बने
भूमि का कर्ज लेकिन भुलाता रहा॥

दूसरों को दिखाता रहा रास्ता
कर्म पथ से स्वयं को हटाता रहा॥

बात करता रहा सत्य आदर्श की
अपना ईमान लेकिन गंवाता रहा॥

आसरे में खड़ा जिस भी दीवार के
हाथ से खुद उसे ही गिराता रहा॥

रह गये स्वप्न सारे अधूरे मगर
कामनाएँ ये अपनी बढ़ाता रहा॥