भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है चाँदनी वो औ मैं अँधेरा सियाह हूँ / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
है चाँदनी वो औ मैं अँधेरा सियाह हूँ
मेरा गुनाह ये है कि मैं बेगुनाह हूँ
उट्ठी थी आँधियाँ जो बस्तियाँ उजाड़ती
उजड़ा था जो उस बार वो गुलशन तबाह हूँ
सीने पे तोड़ते रहे पत्थर वो इस क़दर
निकली है चीर कर जो कलेजा वो आह हूँ
जलता रहेगा ये दिया तूफ़ां के बर ख़िलाफ़
सड़कों में जो गुम हो गयी वो भूली राह हूँ
खुद ढूंढती फिरती हूँ ठिकाना मैं दर बदर
जिस की नहीं पनाह कोई वो पनाह हूँ
कोई द्वार दे न खोल रहजनों के वास्ते
दुश्मन पे जो टिकी रहे मैं वो निगाह हूँ
मुश्किल है जिंदगी में यूँ तो मसले बहुत से
जिस को न कोई मानता मैं वो सलाह हूँ