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है तुम्हारी श्याम सूरत लग रही अभिराम जी / रंजना वर्मा

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है तुम्हारी श्याम सूरत लग रही अभिराम जी ।
आज फिर द्वारे तुम्हारे आ गयी मैं श्याम जी।।

कामनाएं खींचती हैं वर्जनाएं रोकतीं
 छिड़ गया है वर्जना का चाह से संग्राम जी।।

रोज ही तूफान आते हैं बुझाने को दिया
डर लगा रहता न जाने होगा क्या परिणाम जी।।

है निगल बैठी अमावस जब मेरे अस्तित्व को
क्या करे कोई विधाता हो गया जब वाम जी।।

एक दिन देखा तुम्हें मन में छुपा कर रख लिया
अब मुझे दुनिया की बातों से रहा क्या काम जी।।

स्वप्न में ही टेर वंशी की तुम्हारी है सुनी
 मिल गया ज्यों श्रान्त राही को सतत विश्राम जी।।

झिलमिलाए भोर बन कर दोपहर बन कर तपे
हो चली है अब तो हमारी जिंदगी की शाम जी।।

तीर्थ व्रत अब किस लिए जप या कि तप का काम क्या
तारने को है बहुत केवल तुम्हारा नाम जी।।

तप रही है भूमि मन की तड़पते हैं प्राण भी
नेह जल बन बरस जाओ दो भिगो घनश्याम जी।।