भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं / साग़र सिद्दीकी
Kavita Kosh से
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं
मैं ने पलकों से दर-ए-यार पे दस्तक दी है
मैं वो साहिल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं
मैं ने जिन के लिये राहों में बिछया था लहू
हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं
कैसे भर आईं सर-ए-शाम किसी की आँखें
कैसे थर्राए चराग़ों की ज़िया याद नहीं
सिर्फ़ धुंधलाई सितारों की चमक देखी है
कब हुआ कौन हुआ किस से ख़फ़ा याद नहीं
ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह कटती है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं
आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में
कहते हैं के "साग़र" को ख़ुदा याद नहीं