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है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं / साग़र सिद्दीकी

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है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं
मेरे नग़्मात को अंदाज़-ए-नवा याद नहीं

मैं ने पलकों से दर-ए-यार पे दस्तक दी है
मैं वो साहिल हूँ जिसे कोई सदा याद नहीं

मैं ने जिन के लिये राहों में बिछया था लहू
हम से कहते हैं वही अहद-ए-वफ़ा याद नहीं

कैसे भर आईं सर-ए-शाम किसी की आँखें
कैसे थर्राए चराग़ों की ज़िया याद नहीं

सिर्फ़ धुंधलाई सितारों की चमक देखी है
कब हुआ कौन हुआ किस से ख़फ़ा याद नहीं

ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह कटती है
जाने किस जुर्म की पाई है सज़ा याद नहीं

आओ इक सज्दा करें आलम-ए-मदहोशी में
कहते हैं के "साग़र" को ख़ुदा याद नहीं