भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
है न अम्मा, है न मुन्ना / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
अगर मैं लीपूं
तुमको अम्मा
ज्यों लीपती
तुम आंगन को?
तो मैं भी
आंगन के जैसी
सुथरी बनकर
चमक उठूंगी।
तब तो तुम को
हौले हौले
सम्भल सम्भल कर
छूना होगा
है न अम्मा?
हां चाहते
रहूँ साफ मैं
ध्यान तो तुमको
रखना होगा
जैसे रखते
आंगन का हम
है न मुन्ना?