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है न जाने क्या धुन जो कहीं खो रहा / रंजना वर्मा

है न जाने क्या धुन जो कहीं खो रहा
जाने क्यों आदमी बावरा हो रहा

है घिरी घोर बदली प्रदूषण भरी
स्वार्थ हित कंटकों को स्वयं बो रहा

दिन ब दिन भूल पर भूल करता रहे
लाश अपनी स्वयं ही मनुज ढो रहा

जब अनाचार इतने बढे जा रहे
वो विधाता न जाने कहाँ सो रहा

मानवी गुण निरन्तर गंवाने लगा
पर अभी भी मनुज वो बना तो रहा

थे कदम कब बहकते सँभाले गये
जो किये कर्म उन पर स्वयं रो रहा

नासमझ हो गया आज है इस तरह
कीच से कीच के दाग़ को धो रहा