है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'
है बद बला किसी को ग़म-ए-जावेदाँ न हो
या हम न हों जहाँ में ख़ुदा या जहाँ न हो
आईन-ए-अहल-ए-इश्क़ कहाँ और हम कहाँ
ऐ आह शोला-बार न हो ख़ूँ-चुकाँ न हो
फ़ेल-ए-हकीम ऐन सलाह ओ सवाब है
साक़ी अगर शराब न दे सर-गिराँ न हो
तदबीर तर्क-ए-दुश्मन-ए-जाँ की है रात दिन
किस तरह फिर मुझे गिला-ए-दोस्ताँ न हो
क्या वो मताअ जिस की न हो कोई घात में
डरता हूँ मैं तो दुज़द पर-ए-कारवाँ न हो
जब तक फ़रोग़-ए-मय से न हो सीना नूर-ज़ार
हरगिज़ हरीफ़-ए-मय-कदा असरार-दाँ न हो
लाज़िम है यार भी तो हो बे-ताब वर्ना क्या
वो इश्क़ है कि रंज यहाँ हो वहाँ न हो
ना-हक़ वो जी जलाते हैं सौदा-ए-इश्क़ पर
जिन को ये सोच है कि कुछ इस में ज़ियाँ न हो
हम बू-ए-दोस्त तुझ को सुँघाएँगे ‘शेफ़्ता’
महव-ए-शमीम तुर्रा-ए-अंबर-फ़िशाँ न हो