है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की
होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की
ढूँढा किये हम ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की
धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेइमान की
खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें अब किसान की