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है याद तुझ से मेरा वो शरह-ए-हाल देना / 'हसरत' अज़ीमाबादी
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है याद तुझ से मेरा वो शरह-ए-हाल देना
और सुन के तेरा उस को हँस हँस के टाल देना
कर कर के याद उस की बे-हाल हूँ निहायत
फ़ुर्सत ज़रा तू मुझ को तो ऐ ख़याल देना
उस ज़ुल्फ-ए-कज के उक़्दे हरगिज़ खुले न मुझ पर
क्यूँ उस को शाना कर के एक एक बाल देना
मैं मुद्दआ को अपने महमिल कहूँ हूँ तुझ से
गोश-ए-दिल अपना ईधर साहब-जमाल देना
इस उम्र भर में तुझ से माँगा है एक बोसा
ख़ाली पड़े न प्यारे मेरा सवाल देना
हम से रूखाइयाँ और मुँह झुलसे मुद्दई का
बोसा पे बोसा हर दम वूँ बे-सवाल देना
या रब किसी पे हरगिज़ आशिक़ कोई न हो जो
दिल हाथ दिल-बरों के है बद-मआल देना
वो मेहरबाँ कि हम को अल्ताफ़-ए-बर-महल से
पास अपने से था उस को उठने मुहाल देना