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होंठ थर-थर काँपते हैं / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
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होंठ थर-थर काँपते है, दम निकल जाने को है!
यार आने को नहीं है, तो ग़ज़ल आने को है!
तश्नगी मेरी घटा जैसी सराबों पर घिरी,
मोर तपती दोपहर में नाचने-गाने को है!
दिल की धड़कन के सिवा सब-कुछ बहुत ख़ामोश है,
और अब हर सम्त से कोई सदा आने को है!
मेरे पैमाने को साक़ी लाख कर लबरेज़ तू,
कुछ छलक जाने की आदत मेरे पैमाने को है!
बदहवासी से तो अए 'सिन्दूर'! बेहोशी भली,
चल, ज़रा-सा और चल, वो मोड़ मैख़ाने को है!