होंठ / केदारनाथ सिंह
हर सुबह
होंठों को चाहिए कोई एक नाम
यानी एक ख़ूब लाल और गाढ़ा-सा शहद
जो सिर्फ़ मनुष्य की देह से टपकता है
कई बार
देह से अलग
जीना चाहते हैं होंठ
वे थरथराना-छटपटाना चाहते हैं
देह से अलग
फिर यह जानकर
कि यह संभव नहीं
वे पी लेते हैं अपना सारा गुस्सा
और गुनगुनाने लगते हैं
अपनी जगह
कई बार सलाखों के पीछे
एक आवाज़
एक हथेली
या सिर्फ़ एक देहरी के लिए
तरसते हुए होंठ
धीरे-धीरे हो जाते हैं
पत्थर की तरह सख़्त
और पत्थर के भी होंठ होते हैं
बालू के भी
राख के भी
पृथ्वी तो यहाँ से वहाँ तक
होंठ ही होंठ है
चाहे जैसे भी हो
होंठों को हर शाम चाहिए ही चाहिए
एक जलता हुआ सच
जिसमें हज़ारों-हज़ार झूठ
जगमगा रहे हों
होंठों को बहुत कुच चाहिए
उन्हें चाहिए 'हाँ' का नमक
और 'ना' का लोहा
और कई बार दोनों
एक ही समय
पर असल में
अपना हर बयान दे चुकने के बाद
होंठों को चाहिए
सिर्फ़ दो होंठ
जलते हुए
खुलते हुए
बोलते हुए होंठ