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होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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होटों पे कभी जिनके दुआ तक नहीं आती
जीने की उन्हें कोई अदा तक नहीं आती

हो दिल का मरज़ दूर भला कैसे कि अब तो
महँगाई को मुफ़लिस पे दया तक नहीं आती

मुश्किल से महीने में बचाता है वो जितना
उतने में तो खाँसी की दवा तक नहीं आती
 
जिस्मों की नुमाइश ने उसे कर दिया रुसवा
करनी पे मगर उसको हया तक नहीं आती

किसको हैं ज़माने की मयस्सर सभी ख़ुशियाँ
तक़दीर में मुफ़लिस के क़बा तक नहीं आती

विज्ञान के आलिम हैं मगर हाल है ऐसा
इस दौर में जीने की कला तक नहीं आती

पछताएगा, मज़लूम पे ज़ालिम न जफ़ा कर
क़ुदरत की तो लाठी की सदा तक नहीं आती

है नाम 'रक़ीब' अपना तभी तो मेरे नज़दीक
आफ़त का हो क्या ज़िक्र, बला तक नहीं आती