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होठों पर नरम धूप सजाते रहे हैं हम / फ़िरदौस ख़ान
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होठों पर नरम धूप सजाते रहे हैं हम
आंखों में जुगनुओं को छुपाते रहे हैं हम
माना हमारे ख़्वाब की ताबीर तुम नहीं
पलकों पर इनको फिर भी सजाते रहे हैं हम
हक़ दोस्ती का यूं तो अदा हो नहीं सका
ख़ुद को मगर ज़रूर मिटाते रहे हैं हम
ख़ुद अपनी ज़िन्दगी तो सज़ा बनके रह गई
राहे-वफ़ा जहाँ को दिखाते रहे हैं हम
भूली हुई गली में वह शायद कि आ ही जाए
इस आस में चराग़ जलाते रहे हैं हम
दो पल की ज़िन्दगी की ख़ुशी के लिए सदा
'फ़िरदौस' आंसुओं में नहाते रहे हैं हम