भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होती कितनी छोटी चींटी / महेश कटारे सुगम
Kavita Kosh से
होती कितनी छोटी चींटी
फिर भी दिन-भर करती पी० टी०
हरदम ही चलती रहती है
लेकिन कभी नहीं थकती है
आदत है इसकी अलबेली
नहीं निकलती कभी अकेली
झुण्ड बनाकर ये आती है
दीवारों पर चढ़ जाती है
मीठी-मीठी चीज़ें खाती
कभी किसी को नहीं सताती
लेकिन जब अपनी पर आती
हाथी को भी मार गिराती
होती कितनी छोटी चींटी...