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होती चहल पहल है / प्रेमलता त्रिपाठी
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तड़प उठा मन देख मछेरा, मीन प्राण अंतस्तल है ।
ठहर न पाता समय भागता,बहता यों निश्छल जल है।
उदय अस्त के क्रम को जाने,नियति नटी का ये नर्तन,
नित्य प्राच्य से उदित भाष्कर,जाता नित अस्ताचल है ।
कृत उपकृत या दण्ड प्रदायी,स्वतः कर्म अपना होगा,
राजा रंक फकीर यथा विधि,पाता निश्चित प्रतिफल है ।
गागर में सागर की महिमा,आखर-आखर गुरु ज्ञानी,
छंद साधता श्रमिक सवेरा,तब होती चहल पहल है ।
नेह प्रेम शृंगार अधूरा, बिना प्रीत आकर्षण के,
चंद्राकर्षण उदधि मथे ज्यों,अंक उठे तब हलचल है ।