भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होती बात निराली / जगदीश व्योम
Kavita Kosh से
मेरा भी तो मन करता है
मैं भी पढ़ने जाऊँ।
अच्छे कपड़े पहन, पीठ पर
बस्ता भी लटकाऊँ।
क्यों अम्माँ औरों के घर
चौका-बरतन करती है?
झाडू़ देती, कपड़े धोती
पानी भी भरती है।
अम्माँ कहती रोज, बीनकर
कूड़ा-कचरा लाओ।
लेकिन मेरा मन कहता है-
‘अम्माँ, मुझे पढ़ाओ।’
कल्लन कल बोला,
‘बच्चू मत देखो ऐसे सपने,
दूर बहुत है चाँद
हाथ हैं छोटे-छोटे अपने।’
लेकिन मैंने सुना हमारे लिए
बहुत कुछ आता,
हमें नहीं मिलता
रस्ते में कोई चट कर जाता!
पिंकी कहती है बच्चों की
बहुत किताबें छपतीं,
सजी-धजी दूकानों में
शीशे के भीतर रहतीं।
मिल पातीं यदि मुझे किताबें
सुंदर चित्रों वाली,
फिर तो अपनी भी यों ही
होती कुछ बात निराली!