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होती है नाज़नीं की इनायत कभी-कभी / गिरधारी सिंह गहलोत

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होती है नाज़नीं की इनायत कभी-कभी।
आती है दिलजलों पे क़यामत कभी कभी।

कितने दिनों से ख़त न ही कोई ख़बर भी है
होती है बे-वज़ह यूँ मसाफ़त कभी-कभी।
 
इल्ज़ाम था जो गैर का डाला किसी के सर
खाती है मार अपनी शराफ़त कभी-कभी।

सज धज के तुम चलो भले इतना ख्याल हो
बनती है अपनी सौत सबाहत कभी-कभी।

वैसे तो परस्तिश पे भरोसा नहीं मुझे
करने लगा हूँ तेरी इबादत कभी-कभी।

आकर के पूछ लीजे कभी हाल आप भी
मरने से पहले कीजे इयादत कभी-कभी।

सोचो जरा मोहब्बतें करने से पहले तुम
ऐसा है जुर्म जिसमे ज़मानत कभी-कभी।

रुसवा न हो कभी कोई उल्फ़त की राह में
देते है लोग इसमें शहादत कभी-कभी।

समझा है कौन फ़लसफ़ा उल्फ़त का आज तक
करते 'तुरंत' लोग सराहत कभी-कभी।