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होना पड़ा / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
बाज़ार होना पड़ा
हरफ़ ही उलट कर
खड़े हो गए
क्या बोलती
फिर अरथती किसे
गुमसुमाये रही तो
हक़ीकत के इज़लास में
जुबां को
ग़ुनहगार होना पड़ा
सवालों से
कतरा तो जाते मगर
जिस दिशा को गए
घेरे गए
धुरी यूं बनाई गई
देह को
तक़ाजों का हथियार होना पड़ा
धड़कनें चीज हो लें
बिकें बेच लें
तब उसूलन जिया जा सके
घड़ना न आया
ऐसा कभी
मगर बांधे रही
एषणा के लिए
जिन्दगी को
सांझ का ही सही
उठता हुआ
बाजार होना पड़ा