होना हलाल तो एक रोज़ / पंकज परिमल
बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी
होना हलाल तो एक रोज़ सबका तय है
अपने हिस्से के घास-पात जो कुछ पाए
बस, वे ही छप्पन भोग समझकर भोगे, जी
ईदी से कितने रोज़ गुज़ारा चलता है
कितने दिन किशमिश या काजू खा लोगे, जी
दे देंगे, जी रोज़े-नमाज़ कितना सबाब
होना तो हर हासिल का भी इक दिन क्षय है
घण्टा जितना मन्दिर में बजा, हृदय काँपा
आरति के दीपों पर हम जले पतंगे-से
मिलने को तो मिल गया गात को रेशम भी
अन्तर्मन में झाँका तो निकले नंगे-से
सुख-सुविधाओं का भोग लगाने के क्षण में
मन के कोने में कहीं रहा बैठा भय है
जीवन का कोट पहनकर तो हम राजा हैं
अन्दर की उधड़ी सीवन, फटा हुआ अस्तर
हम ताव दिए फिरते हैं मूँछों पर लेकिन
मन में रहती है थोड़ी धुकधुक सी अक्सर
हम दौड़-दौड़कर अब थकने-गिरने को हैं
होने दीजे, अब जिसकी भी होनी जय है