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होना ही है ऐसा / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
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नाव में बार-बार पानी भर आता
और हम उस पानी को बार-बार
उलीचते आगे बढ़ते रहे।
अँधेरे में सूझ नहीं रहा था
कि किस ओर है किनारा।
सूई की नोक-सी तेज़ बारिश में
हमारे कलेजे छलनी हो रहे थे
मारे ठंड के हमारे हाथ-पाँव सुन्न पड़ गये
तो भी
हम रुके नहीं।
इसके बाद!
इसके बाद-
आसमान में धूप खिल उठी
और हम किनारे आ लगे।
ऐसा ही तो होता है
होना ही था ऐसा।
अगर ऐसा न हो तो
यह जीवन क्या है
और मनुष्य का जीवन ही क्यों?