होने को जो न ख़्वाह थकन का गुमान तक / रमेश तन्हा
होने को जो न ख्वाह थकन का गुमान तक
उड़ता है हर परिंद बाद अपनी उड़ान तक।
कितने ही इम्तिहां हैं बदन की थकान तक
सौ बार मरना पड़ता है हर इम्तिहान तक।
धरती बुला ही लेती है देकर सदा उसे
उड़ने को कोई उड़ता रहे आसमान तक।
उठ उठ के कह रहे हैं बगूले वो दास्तां
जिसका नहीं है अब कहीं नामो-निशान तक।
ऐसी भी मंज़िलों से गुज़रना पड़ा हमें
नामूस जिनको कर नहीं सकती बयान तक।
मैं ने जो दूसरों के घरों में लगाई थी
वो आग बढ़ के आ गई मेरे मकान तक।
फिर हाथ मुंह पे रख दिया संकोच ने मिरे
फिर मुद्दआ न आ सका दिल से ज़बान तक।
करते भी क्या हवा ही कुछ ऐसी चली कि बस
जिसका किसी को भी न था पहले गुमान तक।
सब कुछ पलक झपकते समंदर निगल गया
कोई किसी को कर न सका सावधान तक।
मौका पड़ा तो उनके ही मुंह में ज़बां न थी
जिनकी ज़बान बोलते थे बे-ज़बान तक।
इक दूब ही थी वहां निकली जो सुर्खरू
बे शक हवा में उड़ गये पक्के मकान तक।