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होलिका-दहन / अमरेन्द्र

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संवत में क्या जला, और क्या नहीं जला, क्या जाने
दिखा नहीं प्रह्लाद निकलते, और होलिका जलते
जयकारा के पवन-वेग पर हम सब रहे मचलते
घर को लौटे राख लिए और जले हुए कुछ दाने।

रात हुई तो खड़ी होलिका मिली स्वप्न में मेरे
खूब हँसी जबड़ों को खोले फिर चुपके से बोली
मेरे माथे पर मेरे ही शोणित की दे रोली
और खटोले के चारों ही ओर लगा के फेरे ।

तुम मेरे दुश्मन क्या होगे अपना दुश्मन लगते
मुझे जलाने के चक्कर में वन को जला रहे हो
पंचवटी की स्वर्ण-शिखा लंका में मिला रहे हो
कृष्ण-द्रोपदी की रक्षा में तुम दुःशासन लगते।

वृक्ष जलाते काट-काट कर नहीं समझते बच्चू
हाथ होलिका खाक लगेगी, हाथ लगेगा कच्चू।