होली-11 / नज़ीर अकबराबादी
जब आई होली रंग भरी, सो नाज़ो अदा<ref>नाज, अंदाज</ref> से मटकमटक।
और घूंघट के पट खोल दिये, वह रूप दिखाया चमक-चमक।
कुछ मुखड़ा करता दमक-दमक कुछ अबरन<ref>आभूषण</ref> करता झलक-झलक।
जब पांव रखा खु़शवक़्ती<ref>समय की अनुकूलता सौभाग्य</ref> से तब पायल बाजी झनक-झनक।
कुछ उछलें, सैनें नाज़ भरें, कुछ कूदें आहें थिरक-थिरक॥1॥
यह रूप दिखाकर होली के, जब नैन रसीले टुक मटके।
मंगवाये थाल गुलालों के, भर डाले रंगों से मटके।
फिर स्वांग बहुत तैयार हुए, और ठाठ खु़शी के झुरमुटके।
गुल शोर हुए ख़ुश हाली के, और नाचने गाने के खटके।
मरदंगें बाजी, ताल बजे, कुछ खनक-खनक कुछ धनक-धनक॥2॥
पोशाक छिड़कवां से हर जा, तैयारी रंगी पोशों<ref>वस्त्र</ref> की।
और भीगी जागह रंगों से, हर कुंज गली और कूचों की।
हर जागह ज़र्द लिबासों<ref>कैसरिया कपड़े</ref> से, हुई ज़ीनत<ref>सुन्दरता</ref> सब आगोशों<ref>बग़ल, गोद</ref> की।
सौ ऐशो तरब<ref>आनन्द</ref> की धूमें हैं, और महफ़िल में मै नोशों<ref>शराब पीने वाले</ref> की।
मै<ref>शराब</ref> निकली जाम गुलाबी से, कुछ लहक-लहक कुछ छलक-छलक॥3॥
हर चार तरफ़ खु़शवक़्ती से दफ़<ref>डफ एक गोलाकार खाल मढ़ा हुआ बाजा</ref> बाजे, रंग और रंग हुए।
कुछ धूमें फ़रहत<ref>खुशी</ref> इश्रत की, कुछ ऐश खु़शी के रंग हुए।
दिल शाद हुए ख़ुशहाली से, और इश्रत के सौ ढंग हुए।
यह झमकी रंगत होली की जो देखने वाले दंग हुए।
महबूब परीरू<ref>परियों जैसी शक़्ल सूरत वाले</ref> भी निकले कुछ झिजक-झिजक कुछ ठिठक-ठिठक॥4॥
जब खू़बां<ref>खूबसूरत</ref> आये रंग भरे, फिर क्या-क्या होली झमक उठी।
कुछ हुश्न की झमकें नाज़ भरीं, कुछ शोख़ी<ref>चपलता, चुलबुलाहट</ref> नाज़ अदाओं की।
सब चाहने वाले गिर्द खड़े, नज़्ज़ारा<ref>दर्शन</ref> करते हंसी खु़शी।
महबूब नशे की खू़बी में, फिर आशिक़ ऊपर घड़ी-घड़ी।
हैं रंग छिड़कते सुखऱ्ी के, कुछ लपक-लपक कुछ झपक-झपक॥5॥
है धूमख़ुशी की हर जानिब<ref>तरफ़</ref>, और कसरत<ref>अधिकता</ref> है खु़श वक़्ती की।
हैं चर्चे होते फ़रहत के, और इश्रत की भी धूम मची।
खूंबां के रंगीं चेहरों पर हर आन निगाहें हैं लड़तीं।
महबूब भिगोएं आशिक़ को, और आशिक़ हंसकर उनको भी।
खु़श होकर उनको भिगोवें हैं, कुछ अटक-अटक कुछ हुमक-हुमक॥6॥
वह शोख़ रंगीला जब आया, यां होली की कर तैयारी।
पोशाक सुनहरी, जेब बदन, और हाथ चमकती पिचकारी।
की रंग छिड़कने से क्या-क्या, उस शोख़ ने हरदम अय्यारी।
हमने भी ”नज़ीर“ उस चंचल को, फिर खू़ब भिगोया हर बारी।
फिर क्या-क्या रंग बहे उस दम कुछ ढलक-ढलक कुछ चिपक-चिपक॥7॥