होली के दिन एक कविता / कुमार विकल
मेरे प्रिय कवि ने कहा था
‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’
लेकिन मेरे शहर के किसी भी पार्क में जाकर देखो
ऐसा नहीं है.
सिर्फ़ वही लोग बोलते हैं
जो फूलों की पहचान से वंचित हैं
और रंगों को ग़लत ढंग से घोलते हैं
मसलन—
लाल रंग को
हरे, नीले और पीले रंगों को मिला रहे हैं
और काले रंग का एक ऐसा बिंब बना रहे हैं
जिसे देखकर मुझे लगता है
कि मेरे सामने
फिर वही चिर परिचित लम्बी अंधेरी सुरंग है
जिससे मैं एक बार पहले ही
बड़ी मुश्किल से बाहर निकला हूँ
क्या मेरी उन्नीस महीने की लंबी लड़ाई
का अंत
एक सुरंग से दूसरी सुरंग का अंधेरा है?
कहाँ हैं मेरी आकाँक्षाओं के सात रंग?
मेरे सामने तो केवल काले रंग का एक घेरा है।
लेकिन वे कह रहे हैं
‘यह सुरंग नहीं—
काले बाँस से बनी रंगों भरी पिचकारी है
मैं इससे निकलते रंगों को देख नहीं सकता
यह एक रंगांध की लाचारी है।’
पार्क में होली खेल रहे बच्चो, सुनो!
इससे पहले कि तुम्हें भी रंगांध घोषित कर दिया जाए
रंग खेलना छोड़ दो
अपनी पिचकारियाँ तोड़ दो
और चुपके से अपने घरों को लौट जाओ
इधर पार्क में एक नई सुरंग बनाने की तैयारी हो रही है।
मेरे प्यारे चित्रकार दोस्त!
अपने रंगों को सम्हाल लो
रंग ख़तरे में हैं।
इस समय जब रंगों भरी धूप
हर फूल पर सो रही है
तुम्हारे सबसे प्रिय रंग के ख़िलाफ़ साज़िश हो रही है।
वह रंग—
जो तुम्हारी धमनियों में दौड़ता है
जिसकी ताकत से तुम शेष रंगों की पहचान करते हो
और इस पहचान से एक नये रंग—संसार को रचते हो।
वह रंग—
जो एक शब्द से
फूल तक की यात्रा में
एक दर्शन में बदल जाता है
ठीक वक़्त पर जब बोलता है
सुरंगों के भेद खोलता है।
वह रंग—
जो दर्शन से कर्म तक की यात्रा में
एक मज़बूत हथियार बन जाता है
अंधेरी सुरंगें तोड़ने के काम आता है।