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होली गीत / 4 / भील

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भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

टेक- हो साँवरा मती मारो पिचकारी

चौक-1 मति मारो रे मोहे जात में रयणा, में पर घर की हूँ नारी।
हमको रे लजा तुम कोरे ऐसा।
तो मुख से देऊँगी गाली, फजीता होयगा तुम्हारा,
साँवरा मति मारो पिचकारी।

चौक-2 ऐसी रे होस होत हइयाँ में, फिर परणों तुम नारी।
जाय कहूँगी जसोदा माय को,
हजुवन में हुँ कुँवारी ढूढो तो वर माता हमारी,
साँवरा मति मारो पिचकारी।

चौक-3 पर नारी पंलव पकड़ों ऐसी हे चाल तुम्हारी।
माता पिता ना रे व्रत भयो छे
तो राजा कन्स हों भय भारी सुणेगा तो होय विस्तारी।
साँवर मति मारो पिचकारी।

छाप- धन गोकल धन-धन विन्द्रावन धन हों जसोदा माई।
धन मयता नरसइया नु स्वामी।
तो मांगु ते बेड कर जोड़ी सदा संग रहूँगा तुम्हारी।
साँवरा मति मारो पिचकारी।

- हे साँवरे श्रीकृष्ण! मुझ पर पिचकारी से रंग मत छींटो। हे साँवरे! मुझ पर पिचकारी से रंग न डालो। मुझे अपनी जाति में रहना है। मैं पराये घर की स्त्री हूँ। आप ऐसा करेंगे अर्थात् रंग डालेंगे तो हमें लज्जा आयेगी, अगर आप रंग डालेंगे तो मैं अपने मुँ से गाली दूँगी और आपके फजीते हो जायेंगे। हे साँवरे! पिचकारी न मारो।

एक गोपी कहती है कि- अगर आपको इतना शौक है तो तुम ब्याह कर लो। मैं यशोदा माता से जाकर कहूँगी, अभी तक मैं कुँवार हूँ मेरे लिए वर ढूँढ़ो। हे साँवरे! पिचकारी न मारो।

एक नारी कहती है कि आप एक पराई नारी का पल्ला पकड़ना चाहते हैं, ऐसी चाल दिखाई देती है। राजा कंस का भय नहीं लगता, सुनोगे तो होश उड़ जायेंगे। हे साँवरे! पिचकारी न मारो।

गोकुल, वृन्दावन और यशोदा माता धन्य हो। नरसिंह मेहता के स्वामी श्रीकृष्ण धन्य हो। दोनों हाथ जोड़कर वरदान माँगती हूँ कि सदा आपके साथ रहूँ।