होली / राजेंद्र तिवारी 'सूरज'

गली गली में रंग है मगर ये लाल है बस ..
हर एक शख़्स है सहमा हुआ डरा सा यहाँ ..

गीत होली के कहाँ अबकी बार गाये गये ..
न कान्हा वाले राग अबकी गुनगुनाये गये ..
कातिलों ने दिया है हुक़्म सिर्फ़ नारे हों ..
बचे न कोई भी इस रक्त की होली से इस बार ..

जगह पिचकारियों की ली है तलवारों ने यहाँ ..
ग़ुलाल अबकी खूँ के रंग में हुये हैं तब्दील ..
गले कटे हैं यहाँ कौन गले आ के लगे ..
ये गली ख़ून की होली में यूँ नहाई है ..
फिर से इंसानियत का क़त्ल गली में है हुआ ..

होली तो सिर्फ़ बहाना थी खूं में रंगने का |
होली तो सिर्फ़ बहाना थी खूं में रंगने का ||

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.