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होश-ओ-ख़िरद गँवा के तिरे इंतिज़ार में / फ़र्रुख़ ज़ोहरा गीलानी

होश-ओ-ख़िरद गँवा के तिरे इंतिज़ार में
गुम कर दिया है ख़ुद को ग़मों के ग़ुबार में

मैं उस के साथ साथ बहुत दूर तक गई
अब उस को छोड़ना भी नहीं इख़्तियार में

रंग-ए-हिना है आज भी मम्नून इस लिए
मेरे लहू का रंग था जश्न-ए-बहार में

इक वस्ल की घड़ी का तरसती रही सदा
इक तिश्नगी सदा रही दिल के दयार में

हर शख़्स को फ़रेब-ए-नज़र ने किया शिकार
हर शख़्स गुम है गुम्बद-ए-जाँ के हिसार में