भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो इनायत दर्दो-ग़म रंजो-अलम / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
Kavita Kosh से
हो इनायत दर्दो-ग़म रंजो-अलम
मांगते हैं तुमसे हम रंजो-अलम
जो भी चाहो इश्क़ में हासिल करो
दर्दे-दिल, आहो-फुगां रंजो-अलम
इंतिहाए-इश्क़ में देखें कि अब
तोड़ते हैं मेरा दम रंजो-अलम
पूछते हैं वो हमारा हाले-दिल
जिनका हम पर है करम रंजो अलम
कम से कम उनको तो ये मालूम है
सह रहे हैं कब से हम रंजो-अलम
ऐ सितमगर तू बता तेरे सिवा
और किसका है करम रंजो-अलम
हम मुक़द्दर के धनी हैं दोस्तो
मिल रहे हैं हर क़दम रंजो-अलम
दीदनी है मेरे घर का ये समां
मिल रहे हैं यां बहम रंजो-अलम।