भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो के मिट्टी मेरी मुट्ठी से फिसलता ही रहा / नवीन जोशी
Kavita Kosh से
हो के मिट्टी मेरी मुट्ठी से फिसलता ही रहा,
वक़्त हाथों से मेरे साफ़ निकलता ही रहा।
ज़िंदगी की रही तासीर सदा आतिश की,
और मैं मोम का पुतला था पिघलता ही रहा।
एक मैं था कि जो सिमटा रहा दो रंगो में,
इक ज़माना था कि जो रंग बदलता ही रहा।
मेरे सहरा में वह आया भी मगर बन के सराब,
वो रहा पेश-ए-नज़र और मैं चलता ही रहा।
फड़फड़ाती ही रही शम्अ'-ए-फ़रोज़ाँ की लौ,
दिल मेरा साथ शब-ए-हिज्र के ढलता ही रहा।
वो धुआँ था कि तमाशाई जमा होने लगे,
अपनी आँखों में मैं पानी लिए जलता ही रहा।
उसकी फ़ेहरिस्त में शायद मैं था कार-ए-आख़िर,
मेरी बारी न कभी आई मैं टलता ही रहा।