भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो गया देश पर है फ़ना जो जवाँ / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
					
										
					
					हो गया जो  फ़ना  देश  पर है जवां 
उसके घर पर न कोई सहर है जवां 
जान बचती रहे  या कि जाये चली
अब हुआ ही नहीं कोई डर है जवां 
किस तरह चैन की नींद सोये कोई
टूटता  दहशतों  का  कहर  है जवां 
एक पल में  मिली  ख़ाक  में  जिंदगी
कौन जाने कि किसका सफ़र है जवां 
प्राण जिस ने निछावर किये देश पर
अब तवारीख़  में वो  अमर  हैं जवां 
आँधियाँ रोज़ आतंक की चल रहीं
हौसलों की मगर हर  लहर है जवां 
हैं  हवायें  शमा  को   बुझातीं  मगर
रौशनी ख्वाब की सब के घर है जवां
	
	