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हो जाती हैं नदी / सुनील कुमार शर्मा

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जानती है
नदियों की धाराएँ चाह कर भी
नहीं पहुँच पाती अपने उद्गम पर
नदी होना तो
बहते जाना है
बीत ही जाना था पूर्व वेद का
वो गौरवमयी समय उन्मुक्त
उत्तर वेद की मधुयामिनी भी न रुकी
खिली समाज की क्षुद्र लिप्सा
अहल्या दो पुरुषों ने
 मिल छली
फिर भी वह ही पत्थर बनी
सीता भी पृथ्वी-गर्भ में धंसी
पूर्व मध्य तक हर अंकुश लगा
समय की हथौड़ी नारी पर ही ज्यादा चली
जानती है
आज भी स्त्रियाँ हो जाती हैं नदी
सींचती जाती हैं जगत,
बह जाती हैं
और अपने आप को
विसर्जित करती जाती हैं
भूलती जाती हैं अपना अस्तित्व